राजनैतिक जोड़ तोड़ और सत्याग्रही आंदोलनों के रास्ते से हमें 5-6 दिसंबर को एच आर डी (HRD) का जो पत्र मिल पाया वो भी हम विश्वविद्यालय में पूरी तरह से लागू करा पाने में अभी तक असमर्थ रहे हैं। अगर हम एडहॉक नियुक्तियों का इतिहास देखें तो पाएंगे कि वैसे तो ऐसी नियुक्तियां चार पांच दशकों से चल रही हैं मगर परेशानी तब से बढ़ी जब 2007-8 से स्थाई नियुक्तियां लगभग रुक सी गयीं। और फिर 2007-8 से लेकर 2014-15 तक दिल्ली विश्वविद्यालय में हर वर्ष एक एडहॉक शिक्षक को हटाकर उसी के स्थान पर दूसरे को लगाने का अनियमित कारोबार एडहॉक शिक्षकों को प्रताड़ित करने के मकसद से खुले आम चला। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की पहल पर FYUP वापसी के दौरान यु जी सी के द्वारा लिखे गए जुलाई 2014 के ऐतिहासिक पत्र के बाद से कम से कम ये घृणित सिलसिला बहुत बड़े स्तर पर विश्वविद्यालय में रुका, जिसमे यह कहा गया था कि सभी एडहॉक शिक्षकों को नए सत्र में अपने पुराने पदों पर नियुक्ति दिया जाय। इसी कारण से पांच वर्ष से या उससे अधिक समय से काम कर रहे एडहॉक शिक्षकों की संख्या आज 2000 से कुछ ज़्यादा अवश्य होगी।
जो लोग समायोजन को क़ानूनी तौर से असंभव मानते हैं उन्हें ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि एडहॉक शिक्षकों के लिए जो चयन समिति गठित की जाती है वो यु जी सी के रेगुलेशंस के आधार पर नियमित नहीं माना जा सकता। ऐसे लोगों के विचार में, क्योंकि स्थाई शिक्षकों की नियुक्तियों की चयन समितियां इन चयन समितियों से भिन्न होती हैं इसलिए एडहॉक शिक्षकों का समायोजन बगैर स्थाई नियुक्तियों की चयन समितियों के सामने साक्षात्कार दिए हुए करने की इजाज़त कानून कभी नहीं देगा। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दोनों तरह की नियुक्तियों के लिए चयन समितियां एक जैसी नहीं होती, लेकिन ये कहना कि एडहॉक शिक्षकों की चयन समितियां नियमित ही नहीं होती है, ना तो ठीक है और ना ही ऐसा कहकर न्यायालय के आगे विश्वविद्यालय खुद ही अपनी मुसीबत बुलाएगा। न्यायालय में ऐसी दलीलें काम नहीं आएँगी क्योंकि सबको पता है कि आज विश्वविद्यालय में आधे से ज़्यादा शिक्षकों की नियुक्तियां इसी पद्धति से हो चुकी है और विश्वविद्यालय प्रशासन भी इस प्रक्रिया में भाग लेता रहा है। ये कहना कि ये चयन समितियां सिर्फ चार महीनों की नियुक्तियों के लिए थीं – भी विश्वविद्यालय के खिलाफ ही जाएगा क्योंकि ऐसी पद्धति से की गई नियुक्तियां जब इतने वर्षों तक चल रहा था तो उन्होंने ना सिर्फ कोई कार्यवाई नहीं की बल्कि एडहॉक पैनल बना बना कर उसमे सहयोग ही किया। हमारी दलील के पक्ष में उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों ने कई बार निर्णय दिए हैं, क्यूंकि न्यायालय तकनीकी कारणों की आड़ में अन्याय करने वालों का पक्ष नहीं ले सकती। नीचे दिए गए दो लिंकों पर न्यायालयों के निर्णयों को पढ़कर हम आश्वस्त भी हो सकते हैं।
Karnataka State Private College ... vs State Of Karnataka And Ors on 29 January, 1992
Equivalent citations: 1992 AIR 677, 1992 SCR (1) 397 (Link https://indiankanoon.org/doc/340640/ )Jag Lal And Ors. vs Director, Horticulture, U.P. ... on 21 May, 2003
Equivalent citations: (2003) 3 UPLBEC 2528 (Link https://indiankanoon.org/doc/1180932/ )
रजनी अब्बी बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय के मुक़दमे के 2016 दिसंबर को दिए गए निर्णय में दिल्ली के उच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालय को यह कहा था कि वो जुलाई 2017 तक सारे रिक्त पदों के साथ साथ उन पदों पर भी नियुक्तियां कर लें जहां एडहॉक शिक्षक कार्यरत हैं। इतना ही नहीं उस निर्णय में यह भी कहा गया था कि अगर विश्वविद्यालय को इस काम को पूरा करने में कोई दिक्कत नजर आए तो वो न्यायालय से समय रहते ही इस समय सीमा को बढ़ाने की गुहार लगा सकती है।
“point 17. It was agreed by the Committee that it would be appropriate to incorporate in the Minutes of Meeting / its report the above mentioned time-line of May 2017 for completion of the selection process for approximately 600 posts belonging to the University and for approximately 3500 posts in the affiliated colleges, by May 2017 and July 2017 respectively. It was also agreed that if there comes any impediment in this process, the concern of the DU and/or the concerned college affiliated with the University, shall be brought before the Hon’ble Delhi High Court for praying for enlargement of time for completion of selection process regarding any particular post.” ( Link – http://delhihighcourt.nic.in/writereaddata/orderSan_Pdf/jrm/2016/253804_2016.pdf )
मेरी समझ से विश्वविद्यालय ने इस निर्णय की साफ तौर पर अनदेखी और अवहेलना करके हमारे समायोजन की मांग को अनजाने में ही एक बहुत बड़ा कानूनी हथियार दे दिया है। वैसे मार्च 2018 में रोस्टर के कारणों से यू जी सी के द्वारा नियुक्तियों पर रोक लगी जरूर थी मगर वो भी मार्च 2019 को हटा दी गई थी। इस बात को भी अब एक वर्ष से कहीं ज़्यादा हो गया। यू जी सी के द्वारा मार्च 2019 से चलाए गए समयबद्ध तरीके से नियुक्ति के कार्यक्रम में जहां बाकी सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने बड़े स्तरों पर नियुक्तियां की भी हैं, वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में अभी तक एक भी नियुक्ति नहीं हुई।
हां, लेकिन एक बात हमें मानना होगा की न्यायलय में हम उन एडहॉक शिक्षकों के समायोजन के पक्ष में कोई ठोस दलील नहीं दे पाएंगे जो कल ही अपने पदों पर नियुक्त हुए हैं। मुझे लगता है कि हमें जुलाई 2017 के दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को महत्व देकर एक कानूनी लड़ाई लड़ने की तैयारी करनी चाहिए जिसमें उन सभी एडहॉक शिक्षकों के समायोजन के लिए मांग की जाए जो जुलाई 2017 या उससे भी पहले से कार्यरत हैं। इस तारीख का एक कानूनी महत्व है जिसे कोई न्यायालय नज़रअंदाज़ नहीं कर पायेगा।
मेरे अपने अनुमान से जुलाई 2017 से लगातार कार्यरत एडहॉक शिक्षकों की संख्या 3000 के लगभग होगी जिन्हें समायोजन की प्रक्रिया से स्थाई बनाने का क़ानूनी रास्ता सफलता की आशा के साथ तय करने की उम्मीद की जा सकती है। बाकी के 2-3000 पदों पर साक्षात्कार की सामान्य पद्धति से नियुक्तियां जोरों से शुरू करने की मांग भी अगर साथ में की जाए तो हमारे मुक़दमे को एक सही दिशा मिल सकती है।
मगर ये कानूनी लड़ाई जीतने के लिए हमें अपनी पूरी शक्ति लगानी पड़ेगी। अगर ऐसे शिक्षकों का एक ग्रुप बनाकर सभी 3000 शिक्षक आर्थिक सहयोग करें तो हरेक के 1000 रुपयों से ही एक ही बार में तीस लाख का ऐसा फण्ड बन जायेगा जो देश के बड़े से बड़े वकील को इसका पक्ष लेने के लिए खड़ा करने में उपयोग में लाया जा सकेगा। न्यायालय में हमारा पक्ष कौन रख रहा है, इस बात का कितना महत्व है यह हम सब जानते हैं। इस प्रयत्न से कुछ ही महीने में हम कानून के रास्ते से शायद वो हासिल कर पाएंगे जो हम इतने वर्षों की राजनैतिक जोड़ तोड़ और सत्याग्रही आंदोलनों के द्वारा हासिल नहीं कर पाए।