डूटा (दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन) को अपने वामपंथी पाषाण-युगी तरीकों को छोड़कर आज के डिजिटल युग को ध्यान में रखकर उसके अनुसार अपने आपको ढालने और अपनी कार्यशैली में युगानुकूल बदलाव लाने की जरूरत है। पुरानी घिसी पिटी वामपंथी रणनीति और एजेंडे के तहत प्रायोजित आंदोलन खड़ा करने का दौर अब नहीं रहा। आंदोलन खड़ा करने के नाम पर बात-बात में मास-कांटेक्ट के निष्प्रभावी कोशिशों से शिक्षक नेताओं को राजनितिक लाभ तो मिलता होगा मगर आम शिक्षक इसमें अपने आप को ठगा सा ही महसूस करता है। अब इस तकनीकी युग में या तो विराट स्वरुप में स्वतःस्फूर्त खड़ा हो जाने वाले आंदोलनों की मांगों पर ध्यान दिया जायेगा या फिर तर्क के बल पर अपने पक्ष का वजन स्थापित करने वाले की जीत होगी। सूचना और तकनीकी के इस युग में मुट्ठी भर लोगों द्वारा बल प्रयोग करके आंदोलन खड़ा करने और अपनी बात मनवा लेने के पुराने वामपंथी तरीके अब उलटे भी पड़ने लगे हैं। CCTV और हर हाथ में मोबाइल कैमरा होने के दौर में भीड़ का हिस्सा बनकर ज़ोर जबरदस्ती करने का दुष्परिणाम भी अब सामने आने लगा है।आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के उपयोग से दंगे जैसी स्थितियों में भी गुनहगारों की शिनाख्त कर पाना ज़्यादा मुश्किल नहीं रहा। आर्थिक मदद देकर आंदोलन खड़ा कर लेने की पुरानी रणनीति भी अब बैंक खातों में दर्ज सूचनाओं की मदद से उजागर हो जाती हैं और पुलिस कार्यवाई के लिए उपयोग में भी लाई जा रही हैं।
मगर चार दिसंबर 2019 के दिन जब डूटा के आह्वान पर छह सात हजार शिक्षकों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति के दफ्तर पर कब्ज़ा किया था, तो वो आंदोलन स्वतःस्फूर्त तो था ही, उसका स्वरुप भी विराट था। यह शक्ति हमें उन पांच हजार अस्थाई शिक्षकों के ऊपर आये अकस्मात् संकट की वजह से मिली थी जिनकी नौकरी कुलपति द्वारा अगस्त 28, 2019 की रात को जारी किये गए के एक पत्र की वजह से ख़त्म होने के कगार पर आ गई थी। 2018 में UGC द्वारा लाये गए तीसरे संशोधन के समय भी कई अस्थाई शिक्षकों की जीविका एक झटके में खतरे में आ गई थी और शिक्षकों ने अभूतपूर्व संख्या में उस आंदोलन में भाग लिया था। इन आंदोलनों में शिक्षकों की अप्रत्याशित, अभूतपूर्व और स्वतःस्फूर्त भागीदारी ने सरकार को शिक्षकों की बात सुनने और मानने के लिए मजबूर कर दिया। इसके विपरीत विवेकानंद कॉलेज के प्राचार्या द्वारा स्पोर्ट्स विभाग में कार्यरत शिक्षिका के खिलाफ लिया गया अन्यायपूर्ण निर्णय इसलिए वापस नहीं हो पाया क्यूंकि उस आंदोलन में सिर्फ स्पोर्ट्स के शिक्षकों ने आगे बढ़कर भागीदारी की, जो संख्या में अधिक नहीं हैं। इस अन्याय के खिलाफ शिक्षिका को न्यायलय के पास जाना पड़ा। ऐसे ही कई और अन्याय के मामलों में, जैसे दशकों से बंद पदोन्नति के मुद्दों को लेकर सुनवाई सिर्फ इसलिए नहीं हो पा रही है क्यूंकि इसको लेकर शिक्षक भारी संख्या में प्रभावित भी हैं और उद्वेलित भी हैं मगर स्वतःस्फूर्त आंदोलित होकर बड़ी संख्या में भाग लेने की मनः स्थिति में शायद नहीं हैं।
किसी शिक्षक की व्यक्तिगत परेशानी या फिर कुछ सीमित शिक्षकों की एक जैसी परेशानियों को दूर करने के तरीकों में और भारी संख्या में अन्याय से प्रभावित लोगों की परेशानियों को दूर करवाने की रणनीति में अब फर्क करना होगा। भारी संख्या में सडकों पर आने की हद तक उद्वेलित करने वाले मुद्दे पर अलग रणनीति और भारी संख्या में प्रभावित होते हुए भी सडकों पर आने के लिए तैयार नहीं होने की स्थितियों में कोई अलग रणनीति अपनाने का सोचना पड़ेगा। पहले जो डूटा के बीस-पचास एक्टिविस्ट किसी अधिकारी के कमरे में जाकर ज़बरदस्ती बल प्रयोग से जो अपना आक्रोश जाहिर कर जाते थे, उसका समय अब नहीं रहा। ऐसे मुद्दों के लिए RTI जैसे नियमों और न्यायलय की मदद लेने में डूटा को अब परहेज नहीं करना चाहिये। डूटा का अपना एक RTI एक्टिविज्म का विंग और अपना ही एक लीगल सेल होना चाहिए। डूटा के पास क़ानूनी सलाहकारों और क़ानूनी कार्यवाई करने वाले क़ानूनी विशेषज्ञों का पैनल होना चाहिए जो पहले से ही तय राशि पर शिक्षकों या उसके समूह या फिर डूटा को ही आवश्यकतानुसार सलाह या मदद कर सके।
पिछले दशक में किये गए कई डूटा आंदोलनों की समीक्षा करने से ये निष्कर्ष निकलता है कि हर बड़े आंदोलनों का अंत न्यायलय के निर्णय के साथ हुआ है। सेमेस्टर के विरोध के आंदोलन का अंत न्यायालय में हुआ, रोस्टर जैसा गंभीर मुद्दा भी न्यायालय में तय हुआ, कई बार परीक्षा मूल्याङ्कन के बहिष्कारों के मामले, या लम्बे समय तक चल रहे शिक्षक हड़तालों को समाप्त करने के मुद्दे PIL के द्वारा न्यायालय में ही तय होते रहे हैं और डूटा को उनको मानना भी पड़ा है। लेकिन यह भी सत्य है कि शिक्षकों के मुद्दों पर डूटा खुद कभी भी न्यायलय नहीं गयी। इसका कारण तो ये है कि डूटा रजिस्टर्ड संस्था नहीं है लेकिन डूटा खुद किसी पीड़ित की मदद करने के लिए आगे बढ़कर क़ानूनी सहायता दिलाने की कोशिश आधिकारिक और नीतिगत तौर पर भी नहीं करती है, ये एक ऐसी कमी है जिसे हमें डूटा में RTI और लीगल सेल बनाकर जल्दी ही दूर कर देना चाहिए। मुझे लगता है कि इस बात का हमें नुकसान भी उठाना पड़ा है क्यूंकि जब विश्वविद्यालय और सरकार से शिक्षकों को जवाब मांगने की ज़रूरत होती थी तब न्यायलय में डूटा खुद कटघरे में खड़ा कर दिया जाता रहा है। नतीजे में हम प्रहार के बजाय बचाव के लिए लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर हो जाते रहे हैं।
पेंशन के मुद्दे पर शिक्षकों को न्यायलय में जाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा था, रिकवरी जैसे अहम् मुद्दे पर किसी ने न्यायालय में गुहार नहीं लगाई, पदोन्नति और समायोजन के मामलों में भी कोई न्यायालय नहीं गया। नतीजा ये है कि हम पेंशन के मुद्दे पर एक निर्णायक स्थिति में एक दो बार पहुंचे भी, मगर बाकी मुद्दों पर हम कहीं भी नहीं हैं। स्पोर्ट्स के शिक्षकों के मुद्दे पर भी हमारा बचाव एक पत्र के जवाब में आये UGC के उत्तर की सहायता से एक शिक्षिका के न्यायालय में जाने से ही संभव हो पाया है। बाकी मुद्दों पर भी डूटा को सड़कों पर आने वाले आंदोलन का रास्ता तभी लेना चाहिए जब सचमुच में शिक्षक की संख्या निर्णायक तौर पर सुनिश्चित हो। सामान्य तौर पर कई नीतिगत मुद्दों के विरोध में दस हज़ार शिक्षकों का प्रतिनिधित्व करने वाली डूटा जब सरकार को सौ, दो-सौ शिक्षकों की उपस्थिति दिखा पाती है तो अपने साथ साथ सारे शिक्षकों को एक हास्यास्पद स्थिति में डाल देती है। इससे डूटा के पदाधिकारियों का सिर्फ राजनितिक एजेंडा सिद्ध होता है और कुछ नहीं। इससे अलग हटकर ऑनलाइन पेटिशन, प्रभावशाली ट्विटर ट्रेंडिंग और सोशल मीडिया के उपयोग से हज़ारों की संख्या में पीड़ितों के हस्ताक्षर किसी भी समय में सौ – दो सौ लोगों की मामूली भीड़ से कहीं ज़्यादा प्रभाव डालने में समर्थ हो सकता है। वैसे ही एक निश्चित समय में कॉलेज के कार्यकाल के बाहर पांच हज़ार शिक्षकों के समूह को एकत्रित करना, हफ्ते भर से चल रहे शिक्षक हड़ताल से ज़्यादा प्रभाव डाल सकता है।
अतः निष्कर्ष ये कि डूटा को पहले तो शिक्षकों के ऊपर हो रहे अन्याय के मुद्दों की पहचान करनी होगी। इसके बाद व्यक्तिगत मुद्दों पर पहले बातचीत फिर लिखित आवेदन और बाद में RTI का सहारा लेना चाहिये। इन बातों के लिए डूटा में शिक्षकों की मदद करने के लिए सेल होना चाहिये। इसके बाद समस्याएं न सुलझने कि स्थिति में शिक्षकों को क़ानूनी सलाह देने के लिए क़ानूनी सलाहकारों का और न्यायलय में उनके मुद्दों को ले जाने वाले अच्छे वकीलों का एक पैनल डूटा के पास होना चाहिए जहाँ से शिक्षक क़ानूनी सलाह और मदद लेने का सोच पाएं। कई वर्षों से कार्यरत एडहॉक शिक्षकों के समायोजन की जायज़ मांग हो, टीचर वेलफेयर फण्ड का उपयोग ना करने देने का विश्वविद्यालय का अन्यायपूर्ण रवैया हो, प्रावधानों के रहते भी पदोन्नति ना देने का मामला हो या फिर कोविड महामारी काल में ग्रीष्मावकाश के दौरान कार्यरत एडहॉक शिक्षकों के न्यायोचित वेतन के मुद्दे पर कानून हमारी बहुत बड़ी मदद कर सकता था मगर डूटा की रणनीति में इसको कभी भी शामिल नहीं रखने की सोच की वजह से हमने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। मगर अब डूटा को इसमें सुधार लाने की आवश्यकता है।