राज्यसभा और लोकसभा में अधिनियम के पारित होने के बाद नागरिकता संशोधन
कानून 2019 भारत में अब लागू हो गया है। इस कानून के द्वारा धार्मिक आधार पर हुए भारत
के विभाजन के अकल्पनीय विपरीत प्रभावों और उसकी पीड़ाओं को सह रहे लोगों को कुछ
राहत मिलने की आशा है। विभाजन के बाद पाकिस्तान (और उसी से बने बांग्लादेश) के गैर
मुस्लिमों ने भारत जैसे संविधान की अपेक्षा की थी परन्तु उन्हें एक मुस्लिम राष्ट्र में इस्लामिक
कानून के तहत रहने को विवश होना पड़ा। इस्लामिक कानून के तहत इन देशों के गैर
मुस्लिमों को दूसरे और तीसरे दर्जे की नागरिकता के साथ रहने के लिए छोड़ दिया गया
जबकि स्वतंत्रता की लड़ाई में इनकी भागीदारी भारत के नागरिकों की बराबरी की ही थी।
देश का विभाजन इन समुदायों के लिए स्वतंत्रता के नाम पर एक धोखा ही था जिसमें इन्हें
इनकी मर्ज़ी के खिलाफ अंग्रेजों के शासन काल से भी बदतर काल में रहने के लिए छोड़ दिया
गया। पाकिस्तान ने पहले तो भारत की तरह ही धर्मनिरपेक्ष रहने की बात की और वहां के
गैर मुस्लिमों को भेदभाव ना करने का भरोसा दिया परन्तु बाद में खुद को एक मुस्लिम देश
घोषित कर दिया। विडंबना ये कि एक तो भारत और पाकिस्तान दोनों की सरकारों ने
इनपर विभाजन थोप दिया और दूसरे कि उस समय के पाकिस्तान सरकार द्वारा इनके साथ
किसी भी तरह का भेदभाव ना करने का सारा वायदा कुछ ही वर्षों में पूरी तरह से झूठा
साबित हो गया। पाकिस्तान से आज़ादी मिलने के बाद पूर्वी पाकिस्तान जब नए रूप में आकर
बांग्लादेश बना तो गैर मुस्लिमों की उम्मीदों पर फिर से कुठाराघात हुआ जब बांग्लादेश ने
भी अपने आप को एक मुस्लिम देश घोषित कर दिया। इस्लामिक कानून के तहत वहां रह
रहे गैर मुस्लिम बराबरी के हक से फिर से वंचित हो गए। हिन्दू विवाह को कानूनन विवाह
मानने का विधेयक भी पाकिस्तान में कुछ वर्ष पूर्व ही 2016-17 में पास हुआ जिससे ये पता
चलता है कि हिन्दू विवाह की कानूनी मान्यता तक वहां कुछ वर्ष पहले तक नहीं थी।
नौकरियों में, व्यवसायों में और ऐसे ही अन्यान्य सामाजिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में
गैर मुस्लिम हमेशा से इन देशों में उपैक्षा के पात्र बने।
ऐतिहसिक परिपेक्ष में यह सत्य है कि भारत के विभाजन से पूर्व पाकिस्तान के गैर
मुस्लिमों के पास भारत की ही नागरिकता थी। स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान पहले तो सभी
नेताओं ने इन्हें आश्वस्त भी किया था कि किसी भी कीमत पर विभाजन नहीं होगा। महात्मा
गांधी ने तो यहां तक कहा था कि विभाजन उनकी लाश पर ही संभव होगा। हालांकि इस
सबके बाद भी धर्म के आधार पर देश का विभाजन हो गया। इसके फलस्वरूप बड़े पैमाने पर
जो भी गैर मुस्लिम समर्थ थे वो पाकिस्तान छोड़कर भारत आने लगे। जो लोग अफगानिस्तान
सीमा के करीब थे वो लोग अफगानिस्तान में ही शरणार्थी बनकर चले गए। मगर
अफगानिस्तान में तालिबानी काल में पाकिस्तानी प्रभाव में ये लोग वहां भी प्रताड़ित होने
लगे। वैसे बाबा भीमराव अम्बेडकर ने तो आर्थिक रूप से असमर्थ, पिछड़े और दलित हिन्दुओं
को आगाह भी किया था कि पाकिस्तान जिन मूल्यों पर बन रहा है उन मूल्यों की वजह से उस
देश में गैर मुस्लिम हमेशा प्रताड़ित ही होते रहेंगे। उन्होंने असमर्थ, पिछड़े और दलित हिन्दुओं
से किसी भी तरह भारत आने की अपील की थी क्यूंकि उन्हें पता था कि उन सबका हित सिर्फ
भारत में ही सुरक्षित रह पाएगा। मगर इसके बावजूद भी जो लोग अपनी असमर्थता की
वजह से वहीं रह गए उन्हें एक मुस्लिम देश में रहने की पीड़ा सहनी पड़ी। उसी दौरान
लियाकत – नेहरू समझौते के तहत पाकिस्तान ने यह विश्वास दिलाया कि पाकिस्तान में गैर
मुस्लिमों के साथ कोई भी भेद भाव नहीं किया जाएगा इसीलिए उन्हें पाकिस्तान छोड़ने की
ज़रूरत ही नहीं है। इस समझौते के बाद तो गैर मुस्लिमों को भारत आने से रोका तक जाने
लगा। मगर अब लगता है कि लियाकत – नेहरू समझौता पाकिस्तान की एक चाल थी क्यूंकि
उसे एक इस्लामिक देश के तौर पर शोषण करने के लिए पिछड़े और दलित हिन्दुओं की
जरूरत थी। ये असमर्थ और दलित वर्ग पाकिस्तान में शोषण और प्रताड़ना का शिकार होते
रहे और कालांतर में किसी बहाने से या फिर किसी और प्रकार से भाग कर भारत आते रहे।
आज ये शरणार्थी किसी भी हालत में वापिस पाकिस्तान जाने की कल्पना भी नहीं कर
सकते।
इस कानून के द्वारा इन्हीं पीड़ितों और लाचार अल्पसंख्यकों को, जो विभाजन से पहले
भी भारत के ही नागरिक थे, फिर से भारत की नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है।
सरकार को यह ध्यान देने की आवश्यकता होगी कि इस कानून की वजह से किसी एक प्रांत
या क्षेत्र पर शरणार्थियों का अतिरिक्त भार ना पड़े जिससे कि वहां के स्थानीय लोगों की
सभ्यता या जीवन शैली पर उसका प्रतिकूल पड़ने लगे। इस बात की गम्भीरता से परे इस
कानून का विरोध करने वाले या तो इतिहास से अनभिज्ञ हैं या फिर उनका मकसद धार्मिक
या वैचारिक उन्माद से ग्रसित और प्रेरित है।
धर्म के आधार पर प्रताड़ित होकर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हुए
इन शरणार्थियों के पक्ष में समय समय पर लोकसभा और राज्यसभा में सवाल भी उठते रहे
हैं। इनके पक्ष में पिछले वर्षों में वामपंथी पार्टियों और भाजपा के नेताओं के अलावा कांग्रेस के
नेताओं ने हमेशा बढ़चढ़कर इनको नागरिकता देने की वकालत की थी। इसी वजह से
राज्यसभा में भाजपा के अल्पमत होने पर भी ये विधेयक सुगमता से पारित हो पाया। मगर
कोरे राजनीतिक कारणों से आज भाजपा और उसका समर्थन कर रही पार्टियों को छोड़कर
बाकी सभी पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं। लेकिन राजनीति से परे हटकर सिर्फ
मानवीयता के आधार पर जिस तरह से सरकार इस कानून को लागू करने में अपनी दृढ़
इच्छाशक्ति का प्रदर्शन कर रही है यह सराहनीय तो है ही मगर देश में आने वाली कई
पीढ़ियां मानवीय मूल्यों की रक्षा हेतु इस ऐतहासिक कदम के लिए इस सरकार के साहस की
प्रशंसा आगे भी करती रहेगी।